आज कल पूरे देश में एक शोर सा मचा हुआ है, हर कोई इसी बात की चर्चा कर रहा है, जो कोई भी जितना कुछ भी जानता है बोल रहा है बिना यह सोचे समझे कि इससे क्या फर्क पड़ सकता है। कुछ सच्चाई तो कुछ अफवाह पूरी सच्चाई कुछ ही लोगों को पता है, और जिन्हें पता है, वे या तो उसका राजनैतिक फायदा उठा रहे हैं या चुप है।भ्रम के इस माहौल में सच्चाई का सामने आना जरूरी है, क्योंकि सच वह तलवार होती है जो अज्ञानता और भ्रम के अंधकार को मिटा देती है। इसी अफवाह और भ्रम के जाल में फंस कर न जाने कितने ही युवा आज सड़कों पर उतर आए और ना जाने कितना ही नुकसान कर बैठे उस संपत्ति का जो कि देश की है, जो उनकी अपनी सम्पत्ति है, क्या मिला इससे उन्हें शायद कुछ नहीं क्योंकि वह भी एक भ्रम में हैं, डरे हुए हैं क्योंकि अज्ञानता का अंधकार, भ्रम और डर का साम्राज्य पैदा करता है। तो चलिए देखते हैं क्या है सच्चाई और क्या है भ्रम और इस अज्ञानता के अंधकार को समाप्त कर देते हैं।सबसे पहले हम बात करते हैं CAB अथ़वा CAA की, CAB अर्थात सिटीजन अमेंडमेंट बिल जो कि संसद में पारित होने के बाद बन चुका है CAA अर्थात सिटीजन अमेंडमेंट एक्ट।सबसे पहले जानते हैं कि आखिर क्यों जरूरत पड़ी एक नए सिटिजन अमेंडमेंट एक्ट(CAA) की आखिर क्या आवश्यकता थी एक नए नागरिकता संशोधन कानून की।संविधान का अनुच्छेद 5 से लेकर 11 तक नागरिकता को पारिभाषित करता है, इसमें अनुच्छेद 5 से लेकर 10 तक नागरिकता की पात्रता के बारे में बताता है, वहीं अनुच्छेद 11 में नागरिकता के मसले पर संसद को कानून बनाने का अधिकार देता है।यह पहली बार नही है की भारत मे नागरिकता कानून में संशोधन किया गया हो इससे पहले भी ऐसा किया जा चुका है, नागरिकता को लेकर 1955 में सिटीजनशिप एक्ट पास हुआ था। एक्ट में अब तक चार बार 1986, 2003, 2005 और 2015 में संशोधन हो चुके हैं, एक्ट के जरिए केंद्र सरकार के पास ये अधिकार है कि वो किसे भारत का नागरिक माने और किसे नहीं।भारत का नागरिकता कानून 1955 कहता है कि किसी भी व्यक्ति को भारत की नागरिकता लेने के लिए कम से कम 11 साल भारत में रहना अनिवार्य है, साथ ही यह अवैध रूप से आये प्रवासियों की नागरिकता का विरोध भी करता है।
नागरिकता संशोधन कानून-2019(CAA-2019)

नागरिकता संशोधन कानून के जरिए पड़ोसी देशों के अल्पसंख्यकों के लिए यह समयावधि 11 से घटाकर छह साल कर दी गई है, इसके लिए नागरिकता अधिनियम, 1955 में संशोधन किए गए हैं। कानून पास होने के बाद अब 31 दिसंबर 2014 से पहले पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से भारत में आने वाले हिंदु, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाइयों को नागरिकता देना का प्रावधान किया गया है।इसके अनुसार पाकिस्तान(शत्रु देश), बांग्लादेश (1971 से पहले पूर्वी पाकिस्तान और अब पड़ोसी देश) एवं अफगानिस्तान(अस्थिर देश) में वहां धार्मिक आधार पर प्रताड़ित किये जाने वाले अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों (हिंदू, बौद्ध, जैन, पारसी, ईसाई और सिख) को जो कि भारत मे वैध या अवैध तरीके से रह रहे हैं, और भारत से सुरक्षा केई उम्मीद रखते है और भारतीय नागरिकता चाहते हैं को भारत की नागरिकता देने की व्यवस्था की गई है। जिसके लिए नियमो में कुछ छूट (11वर्ष के स्थान पर 6 वर्ष में नागरिकता) देने का प्रावधान किया गया है।
आखिर क्या है विवाद और क्यों विपक्षी दल हैं इस कानून का विरोध में?
विपक्षी दलों का कहना है कि यह विधेयक मुसलमानों के ख़िलाफ़ है और भारतीय संविधान के अनुच्छेद-14 (समानता का अधिकार) का उल्लंघन करता है।बिल का विरोध यह कहकर किया जा रहा है, कि एक धर्मनिरपेक्ष देश में किसी के साथ धर्म के आधार पर भेदभाव कैसे किया जा सकता है?भारत के पूर्वोत्तर राज्यों असम, मेघालय, मणिपुर, मिज़ोरम, त्रिपुरा, नगालैंड और अरुणाचल प्रदेश में भी इस विधेयक का ज़ोर-शोर से विरोध हो रहा है क्योंकि ये राज्य बांग्लादेश की सीमा के बेहद क़रीब हैं एवं इन्हें अपनी सांस्कृतिक पहचान पर खतरा नजर आ रहा है।इन राज्यों में इसका विरोध इस बात को लेकर हो रहा है कि यहां कथित तौर पर पड़ोसी राज्य बांग्लादेश से मुसलमान और हिंदू दोनों ही बड़ी संख्या में आकर बसे हुए है और इनकी संख्या अब और ज्यादा बढ़ जाएगी।एक आरोप ये भी है कि मौजूदा सरकार हिंदू मतदाताओं को अपने पक्ष में करने की कोशिश में प्रवासी हिंदुओं के लिए भारत की नागरिकता लेकर यहां बसना आसान बनाना चाहती है।पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान में धार्मिक आधार पर होने वाले ज़ुल्म की मार्मिक हक़ीक़त को ध्यान में रखते हुए लोगों को राहत देने की कोशिश करता है।ये भी आरोप है कि सरकार इस विधेयक के बहाने एनआरसी लिस्ट से बाहर हुए अवैध हिंदुओं को वापस भारतीय नागरिकता पाने में मदद करना चाहती है।
क्या है सरकार का तर्क?
सरकार कहती है कि साल 1947 में भारत-पाक का बंटवारा धार्मिक आधार पर हुआ था, इसके बाद भी पाकिस्तान और बांग्लादेश में कई धर्म के लोग रह रहे हैं, पाक, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में धार्मिक अल्पसंख्यक काफी प्रताड़ित किये जाते हैं. अगर वे भारत में शरण लेना चाहते हैं तो हमें उनकी मदद करने की जरूरत है।भारत के उक्त तीनों पड़ोसी देशों में हिंदू, सिख, बौद्ध, पारसी, जैन और ईसाई समुदायों के बहुत से लोग धार्मिक आधार पर उत्पीड़न झेलते हैं। पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान का संविधान उन्हें विशिष्ट धार्मिक राज्य बनाता है। इनमें से बहुत से लोग रोजमर्रा के जीवन में सरकारी उत्पीड़न से डरते हैं।इन तीनों देशों में अल्पसंख्यकों को अपनी धार्मिक पद्धति, उसके पालन और आस्था रखने में बाधा आती है। इनमें से बहुत से लोग भारत में शरण के लिए आए और वे अब यहीं रहना चाहते हैं, इन लोगों के वीजा या पासपोर्ट की अवधि भी समाप्त हो चुकी है, कुछ लोगों के पास कोई दस्तावेज नहीं है, लेकिन अगर वे भारत को अपना देश मानकर यहां रहना चाहते हैं तो सरकार उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करना चाहती है।सरकार का यह भी कहना है कि इस एक्ट में चूँकि मुसलमान शब्द का प्रयोग तक नहीं किया गया है अतः यह एक्ट किसी भी प्रकार से भारतीय मुसलमानों के अथवा उनके अधिकारों के खिलाफ नहीं है। साथ ही उक्त तीनों देश (पाकिस्तान, बांग्लादेश तथा अफगानिस्तान) चूँकि अपने अपने अपने संवैधानिक आधारों पर इस्लामिक देश हैं, तथा उक्त देशों में मुस्लिम समुदाय बहुसंख्यक आबादी के रूप में रहता है अतः उक्त देशों के मुसलमान अपने पर किसी प्रकार के अत्याचार के होने की पुष्टि धार्मिक आधार पर कैसे कर सकते हैं।
क्या वास्तव में नागरिकता संशोधन कानून है भारत के संविधान की मूल भावना के खिलाफ

इससे बड़ा असत्य कुछ और नहीं हो सकता है कि नागरिकता (संशोधन) बिल भारत के मूल विचार(संविधान की मूल भावना) के ख़िलाफ़ है, जिसकी बुनियाद हमारे देश के स्वाधीनता संग्राम सेनानियों ने रखी थी।नागिरकता (संशोधन) के जिस विधेयक को लोकसभा ने मंज़ूरी दी है, वो 1955 के नागरिकता क़ानून में बदलाव करने के लिए है।1955 का क़ानून देश के दुखद बंटवारे और उस बंटवारे के फलस्वरूप बड़ी तादाद में अलग-अलग धर्मों के मानने वाले लोगों के भारत से पाकिस्तान जाने और पाकिस्तान से भारत आने की भयावाह परिस्थिति में बनाया गया था।जबकि उस समय नए बने दोनों देशों के बीच जनसंख्या की पूरी तरह से अदला-बदली नहीं हो सकी थी, उस समय भारत ने तो धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश बनने का फ़ैसला किया. लेकिन, पाकिस्तान ने 1956 में ख़ुद को इस्लामिक गणराज्य घोषित कर दिया था।ख़ुद को इस्लामिक गणराज्य घोषित करने वाला पाकिस्तान संभवत: दुनिया का पहला देश था। दुनिया का पहला स्वघोषित मुस्लिम देश। पाकिस्तान ने इस ऐलान के साथ ही अपने संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना की तमाम चेतावनियों को उठा कर कचरे के डिब्बे में फेंक दिया था। क्योंकि मो. अली जिन्ना की तो 1948 में ही मौत हो चुकी थी।अब धीरे-धीरे पाकिस्तान एक धार्मिक देश में तब्दील होता चला गया। इसका नतीजा ये हुआ कि पाकिस्तान में रहने वाले ग़ैर मुस्लिम समुदायों, ख़ास तौर से हिंदुओं और ईसाइयों की मुसीबतें लगातार बढ़ने लगीं।पाकिस्तान में ग़ैर मुस्लिम समुदायों पर ज़ुल्म बढ़े, तो वहां से इन समुदायों के लोगों का फिर से पलायन होने लगा।इन समुदायों के लोगों ने भाग कर भारत में पनाह ली। इसका नतीजा ये हुआ कि पाकिस्तान में ग़ैर मुस्लिम समुदायों की कुल आबादी में हिस्सेदारी घट कर दो फ़ीसदी से भी कम रह गई। कहा जाता है कि देश के बंटवारे के बाद क़रीब 47 लाख हिंदू और सिख पाकिस्तान से भाग कर भारत आए थे।इन हालात में भारत के 1955 के नागरिकता क़ानून में बदलाव की ज़रूरत लंबे समय से महसूस की जा रही थी। ताकि उन लोगों की मांग पूरी की जा सके, जिन्होंने अपना घर-बार छोड़ कर भारत को अपने देश के तौर पर चुना था।लेकिन अब वे बे-मुल्क के लोग थे, और, अपनी कोई ग़लती न होने के बावजूद यहां शरणार्थी की तरह रहने को मजबूर थे।
और आख़िर में, नागरिकता संशोधन विधेयक-2019
पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान में धार्मिक आधार पर होने वाले ज़ुल्म की मार्मिक हक़ीक़त को ध्यान में रखते हुए लोगों को राहत देने की कोशिश करता है।धार्मिक आधार पर लोगों पर होने वाले ज़ुल्म एक कड़वी सच्चाई है और ये धार्मिकता के अलावा अन्य वजहों से लोगों के दर बदर होने की मिसालों से अलग भी है। इसी वजह से इस तर्क को स्वीकार नहीं किया जा सकता कि नए नागरिकता क़ानून में रोहिंग्या मुसलमानों को भी भारत की नागरिकता देने का विकल्प होना चाहिए।रोहिंग्या मुसलमानों को अपने देश म्यांमार की मौजूदा सरकार से शिकायत है, इसके नतीजे में वो कई बार अपनी सरकार के ख़िलाफ़ बग़ावत भी कर देते हैं और सरकार से संघर्ष का नतीजा ये होता है कि कई बार रोहिंग्या मुसलमानों को भाग कर पड़ोसी देश विशेषकर बांग्लादेश में भी पनाह लेनी पड़ती है।बांग्लादेश और म्यांमार के बीच का ये द्विपक्षीय मसला भारत को भी अपनी चपेट में लेता जा रहा है, इसीलिए इस मसले का हल बातचीत से निकाला जाना चाहिए और म्यांमार से भाग कर आए रोहिंग्या मुसलमानों को वहां आराम से बसाया जा सकता है, जहां के वो मूल निवासी हैं।
इस प्रकार यह पूरी तरह साफ़ है कि नागरिकता (संशोधन) विधेयक धार्मिक आधार पर होने वाले ज़ुल्म से बचने के लिए पलायन और राजनीतिक उठा-पटक की वजह से अपना देश छोड़ने को मजबूर हुए लोगों में फ़र्क़ करता है।
ये तर्क भी उचित प्रतीत नहीं होता है कि नागरिकता (संशोधन) का ये विधेयक लिबरेशन टाइगर्स ऑफ़ तमिल ईलम यानी एलटीटीई के आतंक की वजह से श्रीलंका छोड़ कर भारत के तमिलनाडु में शरणार्थी शिविरों में रह रहे लोगों को कोई राहत नहीं देता है। इसका कारण यह है कि, इन श्रीलंकाई तमिलों ने 2008-09 से पहले के कई दशकों के दौरान भारत में शरण ली थी। फिर भी, बेहतर यही होगा कि सरकार नागरिकता (संशोधन) विधेयक की इन बारीकियों के बारे में आगे चल कर विस्तार से अपना पक्ष रखे।
इसी तरह नागरिकता (संशोधन) विधेयक के बारे में जो दुष्प्रचार किया जा रहा है कि ये मुस्लिम विरोधी है, इसके जवाब में सरकार को बड़े पैमाने पर जागरूकता अभियान चलाना चाहिए।
इस विधेयक में उन करोड़ों मुसलमानों का कोई भी ज़िक्र नहीं है, जो भारत के नागरिक के तौर पर देश के बाक़ी नागरिकों की तरह अपने अधिकारों का बराबरी से उपयोग कर रहे हैं.
नागरिकता (संशोधन) विधेयक के ख़िलाफ़ ये राजनीतिक दुष्प्रचार केवल वोट बैंक की राजनीति के लाभ के लिए किया जा रहा है, ताकि देश के माहौल को ख़राब किया जा सके। सरकार को चाहिए कि वो इस सांप्रदायिक असत्य का मज़बूती से फ़ौरन जवाब दे, वरना ये सांप्रदायिक तनाव में तब्दील हो सकता है।नागरिकता (संशोधन) विधेयक के ख़िलाफ़ एक तर्क ये भी दिया जा रहा है कि ये संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है। संविधान का ये अनुच्छेद सभी नागरिकों को बराबरी का अधिकार देता है।हक़ीक़त तो ये है कि नागरिकता (संशोधन) विधेयक की मदद से नागरिक बनने वाले सभी लोगों को भारत के दूसरे नागरिकों की तरह बराबरी का अधिकार मिलेगा, जो उन्हें अब तक नहीं मिल पा रहा है।नागरिकता (संशोधन) विधेयक ओवरसीज़ सिटिज़न्स ऑफ़ इंडिया यानी ओसीआई (OCI)कार्डधारकों से जुड़े नियमों में भी बदलाव करेगा. 1955 के नागरिकता क़ानून के मुताबिक़ कोई भी शख़्स जो विदेश में रहता है वो अगर भारतीय मूल का है (मसलन पहले भारत का नागरिक रहा हो या फिर उसके पूर्वज भारत के नागरिक रहे हों, या उस के जीवनसाथी भारत के रहने वाले हों), तो वो अपना नाम ओसीआई के तहत दर्ज करा सकता है. इस वजह से उसे भारत में आने-जाने, काम करने और अध्ययन करने का अधिकार मिल जाएगा, उन पर सरकार और अधिक नियंत्रण भी बढ़ेगा ताकि यदि OCI कार्ड धारक किसी नियम का उल्लंघन करते हैं तो उनका कार्ड/OCI नागरित समाप्त भी की जा सकती है।ये कानून इनर लाइन परमिट (ILP) के दायरे में आने वाले राज्यों पर लागू नहीं होता है। असम, मेघालय, मिज़ोरम और त्रिपुरा के आदिवासी बहुल इलाक़ों (जिन्हें संविधान की 6 अनुसूची के तहत परिभाषित किया गया है) पर लागू नहीं होगा।
अब देखते हैं NRC को, आखिर क्या है NRC?

NRC यानी नैशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन बिल का मकसद भारत में अवैध रूप से बसे घुसपैठियों को बाहर निकालना है। वास्तव में एनआरसी (NRC) अभी केवल असम में ही पूरी तरह लागू हुआ है। जबकि देश के गृह मंत्री अमित शाह ये साफ कर चुके हैं कि एनआरसी को पूरे भारत में लागू किया जाएगा।सरकार पहले ही यह स्पष्ट कर चुकी है कि एनआरसी का भारत के किसी धर्म के नागरिकों से कोई लेना देना नहीं है इसका मकसद केवल भारत से अवैध घुसपैठियों को बाहर निकालना है। इस प्रकार यह कह सकते हैं कि नैशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन बिल (NRC Bill) एक रजिस्टर है जिसमें भारत में रह रहे सभी वैध नागरिकों का रिकॉर्ड रखा जाएगा। बता दें कि एनआरसी की शुरुआत 2013 में सुप्रीम कोर्ट की देख-रेख में असम में हुई थी। फिलहाल यह असम के अलावा किसी अन्य राज्य में लागू नहीं है।
एनआरसी में शामिल होने के लिए क्या क्या दस्तावेज़ जरूरी है?
भारतीय संविधान में नागरिकता को लेकर स्पष्ट दिशानिर्देश दिए गए हैं।इसके अनुसार यह दस्तावेज अपके पास होने अनिवार्य हैं-लिस्ट A में मांगे गए मुख्य डॉक्युमेंट्स इस प्रकार हैं.(1) 1951 की एनआरसी में नाम(2) 24 मार्च 1971 से पहले मतदाता सूची में नाम(3) जमीन और काश्तकारी के कागज(4) नागरिकता प्रमाणपत्र(5) स्थायी निवास प्रमाणपत्र(6) रिफ्यूजी रजिस्ट्रेशन प्रमाणपत्र(7) पासपोर्ट(8) एलआईसी(9) सरकार द्वारा जारी कोई भी प्रमाणपत्र या लाइसेंस(10) सरकारी नौकरी के कागज(11) बैंक/डाकघर में खाता(12) जन्म प्रमाणपत्र(13) बोर्ड/यूनिवर्सिटी के प्रमाणपत्र(14) कोर्ट से जुड़े दस्तावेजअगर पहली लिस्ट वाले दस्तावेज आपके पास उपलब्ध नहीं हैं अथवा आपके नाम से न होकर आपके माता/पिता/दादा/दादी (द्विवंगत) आदि में से किसी के नाम हैं तो दूसरी लिस्ट के इन कागजात की जरूरत पड़ेगी।लिस्ट B में शामिल मुख्य डॉक्युमेंट्स(1) जन्म प्रमाणपत्र(2) जमीन के कागज(3) बोर्ड/यूनिवर्सिटी के प्रमाणपत्र(4) बैंक/एलआईसी/डाकघर के रिकॉर्ड(5) अगर महिला शादीशुदा है तो सर्किल आफिसर/पंचायत सचिव द्वारा जारी प्रमाणपत्र(6) मतदाता सूची में नाम(7) राशन कार्ड(8) कोई अन्य कानूनी रूप से मान्य दस्तावेज
क्या है NRP और यह NRC से कैसे अलग है
NPR यानी NATIONAL POPULATION REGISTER एक ऐसा रजिस्टर है, जिसमें नागरिकों की जनगणना से संबंधित आंकड़ों का ब्योरा लिखा जाना है, इसकी शुरुआत 2010 में की गई थी। यह 1951 वर्ष से ही प्रति 10 वर्षों में होने वाली जनगणना का ही एक स्वरूप है(ज्ञातव्य है कि भारत में जनगणना की शुरुआत 1872 में लॉर्ड मेयो के शाशनकाल में की गई थी)। जिसमें नागरिकों को किसी तरह के दस्तावेज दिखाने की कोई भी अनिवार्यता नहीं है।यह एक नियमित अंतराल पर होने वाली गणना है जो प्रति 10 वर्षों में संपन्न की जाती है अतः किसी भी प्रकार की अफवाह से बचे और में मांगी गई सूचना निःसंकोच दे ताकि सरकार आपकी सही जानकारी प्राप्त करके योजनाएं बनाते वक्त नागरिकों की वास्विक स्थिति से परिचित हो सके।अतः NPR का किसी भी प्रकार से NRC से कोई भी संबंध नहीं है। जहां NRC का मकसद भारतीय नागरिकों की पहचान करने से जुड़ा है, वहीं NPR का उपयोग देश में रहने वाले लोगों की परिस्थितियों की जानकारी से जुड़ा डाटाबेस तैयार करने से संबंधित है।उपरोक्त लेख में हमने नागरिकों के लिए हर संभव जानकारी सरल शब्दों में उपलब्ध किए जाने का पूर्ण प्रयास किया है, किसी भी प्रकार की त्रुटि के लिए हम सम्पूर्ण टीम की ओर से क्षमप्रार्थी हैं।
सभी पाठकों से अनुरोध है के कृपया किसी भी प्रकार की अफवाह से बचे और अधिक से अधिक जागरूकता का प्रसार करने का प्रयास करे।🙏🇮🇳🙏